Sunday, July 19, 2009

लगभग १० महीने बाद, तारीख २९ जून, २००९, सुबह १० बजे दार एस सलाम विमान तल से टाऊन में पहुँचा ही था तो याद आया की मोबाइल सिम लेना है। बाज़ार में पहुंचते ही एक पुराना तन्ज़नियन दोस्त मिला - बड़े जोश के साथ उसने हाथ पकड़ा और अपनी भाषा और लहजे में जिस गति से उसने बहुत सी बातें कह डाली मैं थोड़ा चकित सा रह गया. "करिबू मी. रवि वेवे म्तुम्ज़ुरी बवाना, वेवे नि म्विन्गेरेज़ा, म्ज़ुन्गु. यू ट्रीट अस तन्ज़निअन पीपुल विथ रेस्पेक्ट दैट मोस्ट इन्दिअन्स हियर डोंट. ( आपका स्वागत है रवि , आप बहुत अच्छे आदमी हैं आप हिन्दुस्तानी नहीं हैं आप अंग्रेज जैसे हैं, यूरोपियन जैसे हैं- आप तंजानिया के लोगों को आदर देते हैं जो की यहाँ के हिन्दुस्तानी नहीं देते।)

एक बार तो मुझे लगा की उसके हिन्दुस्तानी मालिक ने उसे नौकरी से चलता कर दिया है या सुबह ही प्रसाद में कुछ फटकार मिली है पर ऐसी कोई बात नहीं थी। एक पुराने दोस्त से मिलकर वह अपना दर्द बाँट रहा था. मेरे ड्राईवर , चौकीदार और दुसरे स्थानीय कर्मचारियों की बातचीत में मुझे यह विशेषण मेरे लिए सुनाई दे ते रहते थे। शायद मेर दोस्ताना तरीका और ज़रूरत होने पर जो भी मदद हो सके कर देने का तरीका उन्हें ऐसा सोचने देता हो।

उपनिवेशवाद का इतिहास जो भी रहा हो पर व्यक्तिगत रूप में यूरोप के लोगों का व्यवहार सामाजिक तौर पर हम भारतियों से बेहतर, अपने स्थानीय कर्मचारियों के प्रति अधिक शिष्ट तथा दोस्ताना होता है ऐसा मैंने कई बार पाया है, हालाँकि अपवाद तो हर जगह होते हैं.

अफ्रीका में कई जगहों पर भारतीय मूल के लोगों ने बहुत प्रयास कर अपनी एक जगह बनायी है पर बहुत बार इस विकास की प्रक्रिया में यहाँ के मूल निवासियों के साथ उनका व्यवहार कुछ सीमा तक दुराग्रह पूर्ण ही पाया है। पता नहीं ये काली चमड़ी के प्रति हमारा सहज दुराग्रह है या उपनिवेश वाद का एक और चेहरा और या फिर मानव का सामान्य स्वभाव जिसमे कृतघ्नता का बहुत ही सहज समावेश है- जिसके ऊपर पाँव रख कर हम ऊपर चढ़ते हैं उस सीढ़ी को निम्न मान कर यह समझने की प्रवृत्ति की सीढ़ी का तो काम ही यह है की हमें चढ़ाये और चुप रहे!

अभी विगत दिवसों में ऑस्ट्रेलिया में भारतीय मूल के छात्रों पर हमले के समाचार आते रहे थे जो अभी भी हालाँकि कुछ कमतर मात्र में जारी हैं ..उनकी प्रतिक्रिया में प्रेस में काफी कुछ पढने मिला जिसमे ऐसी ही कई बातें ..बड़े शब्द रंगभेद, उपनिवेश वाद, हिंसक मानसिकता आदि पढने और सुनने में आते रहे! निश्चित रूप से इनमे कई इस सोच के परिणाम रहे होंगे और यह भी इतना ही सच हो सकता है की यह कुछ स्थानीय निवासिओं के डर का नतीजा हो. बहरहाल जो भी हो अन्वेषक निजी तौर पर ऐसा मानता है की जब तक हम अपनी सोच को आत्मकेंद्रित रखेंगे और निज स्वार्थ से हट कर चलने का प्रयास नहीं करेंगे यह घटनाएँ होती रहेंगी .

इस विषय पर मैं आप प्रज्ञावान जनों के विचार जानना चाहूँगा और संभव हो तो मनोविज्ञान की दृष्टि में इसके कारण क्या हैं और क्या इससे ऊपर उठ पाना संभव है.

अपेक्षा सहित

आपका ही

अन्वेषक