Saturday, February 19, 2011

Meri Shiksha Yaatra jaari

गतांक (2) से आगे...

मेरी शिक्षा यात्रा.....

1980-राजकोट, गुजरात प्रान्त के काठियावाड़ प्रदेश में बसा एक शांत छोटा शहर, एक अलग संस्कृति, अलग परिवेश. दिल्ली के उजड्ड (क्षमा प्रार्थना सहित) और भागमभाग भरे माहौल से बिलकुल अलग जहाँ भोजन की मिठास की तरह बातचीत और हावभाव में भी शक्कर की अतिरिक्त मात्रा का अनुभव सहज ही हो जाता था और हर प्रक्रिया धीरे धीरे ... 'स्लो मोशन" चलचित्र की तरह!

कालावाड रोड पर हमारा स्कूल शहर से बाहर निर्जन में था, बिलकुल रेतीली जमीन और तरह तरह के सरीसृप जिनमें सांप और गोह भी शामिल थीं हमें मिलने चले आते थे. ये एक अलग ही दुनिया थी.
पूरे परिवेश की तरह विद्यालय का माहौल भी शांत और सादगी से भरा था. अधिकतर शिक्षक केम्पस में बने आवासों में ही रहते थे तो उनकी जीवनशैली दिल्ली के शिक्षकों की तुलना में तनाव रहित ही थी और स्वाभाविक ही वोह उनके व्यवहार में दीख पड़ती थी.
हालांकि इस अंतर और इससे जुड़े नतीजे यानी शिक्षकों के छात्रों के साथ व्यवहार को समझने में मुझे कई वर्ष लग गए जब मैंने मानवीय मनोविज्ञान को पढने का प्रयास किया..नतीजतन मेरी अपने कुछ शिक्षकों से जुडी कुछ शिकायतें जो मेरे अंतस में कहीं दबी पड़ीं थीं, में उनसे मुक्त हो पाया. विशेष कर महिला शिक्षकों के प्रति मेरे मन में एक विशेष सम्मान का भाव भी आ जुड़ा जब मुझे यह बात समझ में आई कि सुबह उठकर घर का सब काम, फिर १०-२० कि. मी. की दौड़, पूरा दिन काम, फिर दौड़ और फिर घर का काम, साल के ३०० दिन..ऐसे में किसी भी सामान्य मनुष्य का तनावग्रस्त होना और कभी नाराज़ हो जाना स्वाभाविक ही है. किंचित एक वय विशेष में यह समझ पाना नितांत दुरूह होता है और सपनों के रंगीन चश्मों से दुनिया बस सतरंगी ही नज़र आती है, उसमें श्याम और श्वेत का स्थान ही कहाँ होता है!

जिन शिक्षकों ने राजकोट में मुझ पर सबसे अधिक प्रभाव डाला वो थे श्री पन्नालाल शर्मा, और श्री तिवारी-
पन्नालालजी हमारे कक्षा अध्यापक थे और हिंदी पढ़ाते थे. मैंने अपनी कक्षा के लिए उनसे अधिक मेहनत करते हुए किसी को नहीं देखा. उनकी लिखावट इतनी सुन्दर थी कि ऐसा लगता था जैसे टाइप प्रिंट किया गया है. कक्षा के डिस्प्ले बोर्ड पर उनके बनाये गए चार्ट्स की बदौलत हमारी कक्षा को सर्वश्रेष्ठ कक्षा का खिताब हासिल था. एक दिन हमारे प्रधानाध्यापक महोदय कक्षा के दौरान सर्वेक्षण में आ बैठे. पन्नालालजी की स्थिति ऐसी थी जैसे कोई प्राइमेरी का बच्चा पहली बार अस्सेम्ब्ली में भाषण दे रहा हो. वो घबराहट में शब्द भूल से जा रहे थे. उस समय संधि पर वार्ता हो रही थी और उसे समझाने के प्रयत्न में पन्नालालजी ने कहा हाइड्रोजन और ओक्सीजन मिलकर जैसे एचओटू बनता है वैसे ही संधि....और मुझ सहित कक्षा के बहुत से ज्ञानी बच्चे उनके केमिस्ट्री ज्ञान पर हंसने लगे थे, आज सोचता हूँ की हम सब कितने मूर्ख थे कि उनके इस प्रयास को समझने और उसका सम्मान करने के बदले हम उपहास प्रवीण बन बैठे. सच ही विवेक बुद्धि के अभाव में मनुष्य चाँद की जगह पर चाँद दिखाने वाली ऊँगली को ही पकड़ और उसकी विवेचना कर अपनी समझ को सार्थक मान बैठता है. छात्रों का उत्साहवर्धन करने में भी वोह कभी कृपणता नहीं करते थे.

मुझे याद है प्री बोर्ड में मैंने मदर टेरेसा पर निबंध लिखा था जिसमें तथ्यगत सूचनाएं जैसे उनका जन्म स्थान, जन्म तिथि आदि नहीं थीं जो सामन्यतः निबंध के लिए आवश्यक मानी जाती हैं पर मैंने निबंध की शुरुआत कुछ इस तरह की थी-
" श्वेत वस्त्रों में लिपटी, गौर वर्ण दुबली पतली सी कृशकाय महिला, जिसकी आँखों में करूणा और हर कृत्य में परमार्थ दीख पड़ता है, कौन है यह? निर्मल सदन के प्रांगण...."
और पन्नालालजी इस पर मुग्ध हो गए थे...बारम्बार उनकी हर कक्षा में उन्होंने इन पंक्तियों को पढ़ कर सुनाया और मेरे निबंध के अन्य तमाम अभाव और न्यूनताओं के उपरान्त भी मुझे केवल इस प्रारंभ और अंत (जो मुझे याद नहीं पड़ता) के दम पर ही २० में से १८ अंक मिल गए थे.

तिवारी सर बायोलोजी पढ़ाते थे और उनके जैसी ड्राईंग मैंने आज तक किसी को बनाते नहीं देखा. हर क्लास के पहले बायोलोजी लैब में सम्बंधित विषय की ड्राइंग - फ़्रोग के आर्तीरिअल सिस्टम, मस्कुलर सिस्टम, वेनस सिस्टम या केवल हार्ट- भांति भांति के रंगों की चॉक्स से श्याम पट की शोभा बढाती दीखती थीं. आजीवन अविवाहित और एकाकी , सेवानिवृत्ति की और अग्रसर तिवारी सर के जीवन में किंचित छात्रों और विद्यालय के सिवा और कोई शगल था ही नहीं और अपने जीवन के सब रंगों की कमी वो श्याम पट पर रंग बिखेर कर पूरी कर लेते थे. हर एक नयी क्लास और एक नयी ड्राइंग!

अपनी गणित और विज्ञान की बहुत सी मूलभूत कमियों को में राजकोट में दूर कर पाया हालाँकि बोर्ड की परीक्षा में अपनी ध्यान न देने की सबसे बड़ी कमी के कारण अंक फिर से वोही ढाक के तीन पात पर साइंसमें दाखिला मिल जाने पुरते अंक मिल गए! इधर कक्षा ११ कि शुरुआत हुई और पिताश्री के स्थानान्तरण का आदेश भी और पथिक पुनः दिल्ली कि ओर प्रस्थित.
मुझे आज भी याद है कि राजकोट से वापस आकर दिल्ली के अपने पुराने विद्यालय ( टेगोर गार्डेन) में कक्षा ११ में पुनः दाखिले के लिए पहुंचा तो कक्षा ९ कि अध्यापिका श्रीमती मेहता मिल गयीं और बहुत खुश होकर उन्होंने कहा अरे वाह साइंस मिल गयी. पूरे एक साल मुझसे कक्षा ९ में त्रस्त और मेरी डायरी और नोटबुक दोनों को लाल स्याही से भर कर साइंस नहीं मिलेगी कि उद्घोषणा करने वाली शिक्षिका मेरी सफलता से बड़ी प्रसन्न थी! आज सोचता हूँ तो हंसी भी आती है पर उन दिनों ढर्रा कुछ ऐसा था की विज्ञान माने वैशिष्ट्य ( सबसे बुद्धिमान); कॉमर्स ( दूसरी श्रेणी) और आर्ट्स वाले- माने जिनका कुछ नहीं हो सकता!
पर जो भी हो नियति को मेरी उपस्थिति उस तथाकथित विशिष्ट वर्ग में रखनी थी किंचित इसीलिए राजकोट यात्रा हुई अन्यथा दिल्ली के स्कूल में तो मेरे अंकों के साथ विज्ञान में प्रवेश असंभव था सो अपनी यात्रा बढ़ चली!
क्रमश.......