मेरी शिक्षा कई कारणों से कई शहरो में हुई। मैं अंकों की दृष्टि से उत्कृष्ट छात्रों में नहीं गिना जाता था पर मेरे मित्रों,परिचितों और आश्चर्यजनक रूप से मेरे बहुत से शिक्षकों का ऐसा मानना था की लड़के में कुछ दम है कुछ करसकता है। उन सहृदय शिक्षकों मैं कुछ ऐसे हैं जिनके अपने ही पास होने की अनुभूति मुझे आज भी है और उनकीआवाज मुझे अभी भी कानों में ऐसे सुनाई पड़ती है जैसे मुझसे अभी बात कर रहे हैं।
वैसे तो बचपन में कभी पूरे बटा पूरे से कम नहीं मिले पर गड़बड़ की शुरुआत हुई मेरे पांचवी कक्षा से केंद्रीयविद्यालय में दाखिले के साथ- वोह यूँ कि शिक्षण का माध्यम हिन्दी से अंग्रेजी हो गया। अब बेचारे सरस्वती विद्यामन्दिर के शिशु को, आप महू कैंट में अंग्रेजी के सिवा कुछ न बोलने वाले सेना अधिकारिओं की संतानों के बीच फ़ेंकद्नें तो क्या होगा?
वैसे तो बचपन में कभी पूरे बटा पूरे से कम नहीं मिले पर गड़बड़ की शुरुआत हुई मेरे पांचवी कक्षा से केंद्रीयविद्यालय में दाखिले के साथ- वोह यूँ कि शिक्षण का माध्यम हिन्दी से अंग्रेजी हो गया। अब बेचारे सरस्वती विद्यामन्दिर के शिशु को, आप महू कैंट में अंग्रेजी के सिवा कुछ न बोलने वाले सेना अधिकारिओं की संतानों के बीच फ़ेंकद्नें तो क्या होगा?
फ्रेंड माने तो दोस्त होता है यह मालूम था, पर फ्रेंडशिप माने "दोस्ती का जहाज" नहीं होता ऐसा मालूम होने में बहुत समय निकल गया! तो सीधी भाषा में जैसा कि मेरे एक दोस्त प्रवीर ( जो बहुत बाद में मिले)का कहना था कि अपनी तो अंग्रेजी में फीस माफ़ थी - याने कि डिब्बा गुल।
गणित और विज्ञानं दोनों ही में कुछ भी समझ पाना बड़ा दुष्कर - वोह तो नया स्कूल था और मुझ जैसे बालकों किगिनती कुछ अधिक तो विशेष प्रयासों के कारण किसी तरह पास तो हो गya और इसी के साथ दिल्ली को प्रस्थितभी - अपने माता पिता के पास -कहानी तो यहाँ से शुरू हुई। एक एक क्लास में बड़ी भीड़ - ४५ बच्चे और बिल्कुलहर किस्म और प्रजाति के। हिन्दी और सामाजिक विज्ञानं में तो सब ठीक था पर गणित और विज्ञानं वोही ढाकके तीन पात और ऊपर से तुर्रा ये कि कुछ हमारे शिक्षक भी अंग्रेजी भाषा में फीस रियायत वाले मिल गए - मेरी तोखैर पूरी माफ़ थी।
गणित और विज्ञानं दोनों ही में कुछ भी समझ पाना बड़ा दुष्कर - वोह तो नया स्कूल था और मुझ जैसे बालकों किगिनती कुछ अधिक तो विशेष प्रयासों के कारण किसी तरह पास तो हो गya और इसी के साथ दिल्ली को प्रस्थितभी - अपने माता पिता के पास -कहानी तो यहाँ से शुरू हुई। एक एक क्लास में बड़ी भीड़ - ४५ बच्चे और बिल्कुलहर किस्म और प्रजाति के। हिन्दी और सामाजिक विज्ञानं में तो सब ठीक था पर गणित और विज्ञानं वोही ढाकके तीन पात और ऊपर से तुर्रा ये कि कुछ हमारे शिक्षक भी अंग्रेजी भाषा में फीस रियायत वाले मिल गए - मेरी तोखैर पूरी माफ़ थी।
इस पूरे प्रकरण में समस्या ये हो गई कि मेरा मन उचटने लगा और क्लास के बीच में मेरी दृष्टिक्लास के बाहर चिडिया के घोंसले में और या छत पर टंगे मकड़ी के जाल पर ये देखती रहती के शिकार कैसेकिया जा जा रहा है। सामान्य बुद्धि तो अच्छी थी और हिन्दी में कविता भी लिख लेता थातो हिन्दी के शिक्षक ललित प्रसाद शर्मा जो कि हमारे क्लास टीचेर भी थे और हमारे बीच लल्लू प्रसाद के नाम सेविख्यात थे मेरे विशेष प्रशंसक थे तो पास होने मे तो परेशानी नहीं होती थी। उत्तर प्रदेश के देहात से आए उन सरल मन मनुष्य ने सचमुच मुझे बहुत प्रेमदिया और मेरा नाम लेकर वे आने वाली क्लास में भी उदाहरण दिया करते थे। मेरी अपनी क्लास में ही मेरेअपने दोस्त कहते थे कि में जरूर लल्लू जी की विशेष कृपा पाने के लिए - मक्खन की टिकिया का प्रयोगकरता हूँ.
क्रमशः
आपका अन्वेषक