Monday, September 16, 2013
अथ हिंदी दिवस -भाषा की व्यथा कथा
भाषा की व्यथा!
संस्कृत, पाली, प्राकृत की वन्शज , अपभ्रंष की दुहिता,
अपने ही घर में उपेक्षित नायिका सी मैं हिंदी, खोजती अपना अस्तित्व ,
सोचा था बन सकूंगी आधार सुसंवाद का , पर बना छोड़ा मुझे, कारण व्यर्थ विवाद का !
कभी उत्तर - दक्षिण के झगड़े में कुचली ,
या हिंदी भाषियों की अंग्रेजी में फिसली,
तत्सम, तद्भव और देशज शब्दों का मुझमें भण्डार है
विदेशी शब्दों को मैंने किया प्रेम से स्वीकार है.
पर मुझे बोलने वालों ने मुझसे ही किया किनारा
विदेशी शब्दों की भरमार से मेरा स्वरुप ही बिगाड़ा!
क्या मेरी नियति भाषा विवाद ही है, या होगा मेरा जनभाषा का स्थान
प्रतिष्ठित हो निज घर में, फिर होगा मेरा सम्मान ?
प्रतीक्षा में है समय , टटोलो निज मन,
प्रश्न समीचीन है,उत्तर दो हिंदी जन !
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