Sunday, March 14, 2010

Meri Shikshaa Yaatra (2)

गतांक से आगे ...

मेरी शिक्षा यात्रा जारी...

तो श्री ललित प्रसाद शर्माजी, हिंदी, सामाजिक विज्ञानं तथा देव भाषा संस्कृत की सम्मिलित कृपा से कक्षा ८ तक तो किसी प्रकार ठीक ठाक काम चल गया और कुल अंक भी अछे ही आ गए. यद्यपि अंग्रेजी भाषा विषय में भी स्थिति बुरी नहीं थी पर इस भाषा माध्यम के प्रयोग के कारण प्रश्न समझ ही नहीं आते थे.

नवीं कक्षा सम्भवतः स्कूल की कठिनतम कक्षा होती है! यहाँ तो सब कुछ ही बदल गया क्योंकि अबतक जो भी सीखा था वह सब तो प्रस्तावना थी, पाठ्य क्रम तो अब आरम्भ हुआ है ऐसा हमें बताया गया और गणित और विज्ञान की पुस्तकें देखकर इस बात का अर्थ समझ आ गया! शिक्षकों के अभाव के कारण हमें नवीं कक्षा में कुछ ऐसे शिक्षकों का सामना करना पड़ा था जो सम्बन्धित विषय से ही नहीं थे...जैसे एक संस्कृत की अध्यापिका अपने विद्यालय के दिनों में पढ़ी गणित के आधार पर हमें गणित, और सामाजिक ज्ञान की एक शिक्षिका हमें हिन्दी के लिए आवंटित हुयीं तो वहाँ मेरे जैसे बौड्म भट्टराय का क्या काम बनता?

किन्चित मैं किसी भी समस्या को हर पहलू से देखे बिना समझ ही नही पाता था. "जैसा बाद में मुझे पता लगा कि मेरे जैसे मानस के लोग "क्युमुलातिव थिन्केर्स" ( cumulative thinkers ) या फिर सामान्य वार्तालाप की भाषा में ट्युब लाइट कहलाते हैं तो स्वाभाविक ही था कि जहाँ सिलेबस को किसी तरह पूरा करने की भागम भाग हो, वहाँ प्राथमिकता, समस्या को समझने या समझाने की नहीं, वरन उसे हल करने की थी भले ही वोह "एम बी डी " की गाइड से रट कर ही सही.. तो स्वाभाविक ही गणित और विज्ञानं में सदा की भांति अपना बेताल फिर से उड़कर पेड़ पर जा लटकता था. इस बेताल पच्चीसी के चलते इन दोनों ही विषयों में मेरे फंडे ( Fundamentals) गड़बड़ा गए जिसका घाटा मुझे बहुत आगे तक उठाना पड़ा.

अस्तु, जो भी हो इस बार शिक्षा स्थान को बृहस्पति कृपा पूर्ण हो कर देख रहे थे और हमें केमिस्ट्री पढ़ाने आयीं श्रीमती सेठ! एक नाम और व्यक्तित्व जिसे भूल पाना शायद किसी भी सम्पर्क में आने वाले के लिए सम्भव नहीं होगा! गोरी चिट्टी, शानदार कद काठी, तीखे नयन नक्श, कंधे तक काटे बाल और शालीन शृंगार वाली हमारी यह नई शिक्षिका मानो मरुभूमि में आई वर्षा कि तरह थी. उस समय में भी उनका व्यक्तित्व ऐसा था कि आज के समय की चर्चित मोडेल्स भी उनके सामने पानी भरती दीखतीं! लेकिन कहीं भी कोई असहजता नहीं और शालीन व्यक्तित्व कि तरह ही साफ और स्पष्ट सोच. हरएक विषय पर क्यों, क्या, कैसे, कहाँ पर सम्मिलित चर्चा और पहली बार ऐसा हुआ कि कोई शिक्षक उत्तर देने के स्थान पर प्रश्न जगा रहा था! केमिस्ट्री के तमाम कठिन पेंच.... एटोम्स, इलेक्त्रौन्स, केमिकल कोम्पोसिशन, वलेंसी आसान होने लगे और विज्ञान की ज्ञानयात्रा सहजता से आगे बढ़ चली. अब मजा आने लगा था!

एक और चीज़ जिसके लिए श्रीमती सेठ विख्यात थीं वोह थे करारे थप्पड जो सामान्यतया उन योद्धाओं के लिए सुरक्षित होते थे जो परीक्षा में फर्रे और कुंजी जैसे यंत्रों का प्रयोग करते हए पकड़े जाते थे. धूप का चश्मा पहने हुए वोह जिस परीक्षा कक्ष में निरीक्षक होती थीं वहाँ बडे बडे सूरमा भी ऐसे दुस्साहस कम ही करते थे.. काले चश्मे के पीछे से किस ओर उनकी दृष्टि राडार कि भाँती कब क्या देखले किसी को पता नहीं लगता. लेकिन यदा कदा इन् शस्त्रों का प्रयोग कक्षा में धूर्त गणों को रास्ते पर ले आने के लिए भी हो जाता था और ...विश्वनाथ के बेट के बीच से निकले करारे शौट्स के जैसे उन थप्पडौं की गूंज, १५० फुट लम्बे गलियारे के आखिरी कोने तक सबको सुनाइ देती थी!
यह हमारी इस युवा शिक्षिका के व्यक्तित्व का ही कमाल था कि पहली बार ऐसा हुआ कि कक्षा के शठ सम्राट भी ध्यानपूर्वक अध्यवसाय में जुट गए और बहुत से किशोर भावुक हृदय स्वप्नों में भी खोने लगे जो कि उस वय में कदाचित स्वाभाविक ही था!
सुख के दिन अधिक साथ् नहीं रह्ते, इस उक्ति को चरितार्थ करते भगवान बृहस्पति की दृष्टि पुनः वक्र हुई और उन्होने श्रीमती सेठ को पी जी टी बनाकर स्थानान्तरित कर दिया. वोह चली गईं और पीछे छोड गयीं कक्षा में बिताए गए सबसे रुचिकर पलों की स्मृतियाँ, कुछ थप्पडौं की गूंज और कुछ खण्डित कोमल किशोर हृदय! हमारे ज्ञानी घंटाल सह्पाठियों की मानें तो इन् हृदयों में सारे किशोर छात्रों के नहीं थे!

मानसिक वयस्कता / विवेक बुद्धि का वय से सीधा (और कदाचित अन्यथा भी) सम्बन्ध नहीं होता है यह शिक्षा मुझे दो वर्ष के बाद मिली जब मैने हमारी कक्षा में आई अपनी उप मुख्यशिक्षिका के व्यवहार का आँकलन श्रीमती सेठ से किया. ५५ वर्षीया विगतयौवना (इस विशेषण का कारण -पोंड्स की तहों में ढका उनका चेहरा और सद्य विवाहिता की जैसी गहरी लाल लिपस्टिक) इन महोदया ने कक्षा ११ में अपने एकमात्र ४५ मिनट के सत्र में हमारी कक्षा की सर्वश्रेष्ठ छात्रा को एक शायरी ( जो कदाचित उनके मापदण्ड पर उचित नहीं थी) लिखने के लिए न केवल अभद्र शब्दों में लताडा बल्कि उसके माता पिता सहित भरी कक्षा में उसका कुलोध्धार कर दिया बिना यह सोचे की उसके मन पर क्या प्रभाव पड़ेगा! वहीं २५ के लगभग वय की श्रीमती सेठ ने नवीं कक्षा में हमारे एक भावुक सहपाठी से प्रेमपत्र मिलने पर कक्षा में उसका हाथ पकड कर इतने प्यार से उसे समझाया कि सारा अपराधबोध ही समाप्त हो गया!

नवीं कक्षा का सत्र समाप्ति कि ओर था विज्ञान कि कमाई गणित और इस बार हिंदी में भी गवांई. कुल मिला के "पास मार्क्स" पर अभी पट गिरा नहीं था अभी तो बहुत कुछ सीखना बाकी था!

सत्रांत में पिताश्री का स्थानांतरण इस बार गुजरात के राजकोट नगर में हो गया और एक और अध्याय समाप्त और एक नया प्रारंभ...!

आगे के यात्रा पर मिलते हैं क्रमशः...


अन्वेषक

2 comments:

  1. पढ रहे हैं इन्तज़ार रहेगा। शुभकामनायें

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  2. nice one, just happen to read it today.

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